निर्देशक- अनुभव सिन्हा कलाकार- राजकुमार राव, भूमि पेडनेकर, पंकज कपूर, दीया मिर्जा, आशुतोष राणा, आदित्य श्रीवास्तव, कृतिका कामरा, सुशील पांडे, अदिति सुबेदी
“न्याय हमेशा ताकतवर के हाथ में होता है शर्माजी, अगर कमजोर के हाथ में दे दिया जाए न, तो न्याय अलग होगा”, पुलिस की यूनिफॉर्म पहने सूर्या कुमार सिंह (राजकुमार राव) कहता है। अनुभव सिन्हा द्वारा लिखित और निर्देशित इस फिल्म में वर्ग, जाति, धर्म और सामाजिक स्तर, हर पहलू को छुआ गया है। फिल्म उन दिनों को दिखाती है, जब कोरोना की वजह से देशभर में लॉकडाउन लगा दिया गया था और हजारों, लाखों प्रवासी मजदूर शहर को छोड़ अपने गांव जाने का रास्ता तलाश रहे थे। घर तक पहुंचने की सुविधा तो दूर, उन्हें बुनियादी जरूरतों के लिए भी जान गंवानी पड़ी थी। लॉकडाउन के इसी दर्द भरे पन्ने को ये फिल्म एक बार फिर खोलती है।
फिल्म की कहानी अलग अलग लोग और उनकी जिंदगी से शुरु होती है, लेकिन अंत में सभी सिस्टम के सामने तराजू के एक ही तरफ बेबस और लाचार नजर आते हैं। सूर्या कुमार सिंह (राजकुमार राव) को लॉकडाउन में एक दिन का थाना प्रभारी बना दिया जाता है, जिसे राज्य के बॉर्डर में आने वाले लोगों को रोकने का आदेश दिया जाता है, ताकि कोरोना वायरस को फैलने से रोका जा सके। सूर्या को इस स्थिति की गंभीरता का अंदाजा तब लगता है, जब धीरे धीरे उसके सामने हजारों लोगों की भीड़ खड़ी हो जाती है। वो थाना के पास ही मैदान में लोगों को सरकार की अगले आदेश तक रूके रहने की हिदायत देता है।
इसी भीड़ में एक मां (दीया मिर्जा) है, जो अपनी बेटी से मिलने के लिए दूसरे शहर जाने को व्याकुल है। लेकिन एसी कार और तमाम सुविधाएं होने के बावजूद वो सिस्टम के सामने बेबस है। बलराम त्रिवेदी (पंकज कपूर) और उनका पूरा कुनबा है, जो शहर से वापस अपने गांव जाना चाहता है ताकि मृत्यु भी आए तो अपनों के बीच आए। एक मुस्लिम यात्रियों से भरी बस है, जिन पर लोग अफवाहों में आकर कोरोना फैलाने का आरोप लगा रहे हैं। इसके अलावा, हजारों लोग हैं, जिनमें से कुछ 100 किलोमीटर पैदल चलकर आ रहे हैं, कुछ 500 किलोमीटर, लेकिन अभी भी गांव पहुंचने की आस के बीच लंबा फासला है। और इन सबके बीच है कोरोना जैसी अनदेखी- अनसुनी बीमारी का डर, जिससे डॉक्टर विधि प्रभाकर (भूमि पेडनेकर) जूझ रही हैं। बहरहाल, तमाम दुख दर्द के बीच भी फिल्म में इंसानियत की झलक दिखती है, जो एक तसल्ली की तरह लगती है।
कहना गलत नहीं होगा कि स्टारकास्ट इस फिल्म की मजबूत पक्ष है। सूर्या कुमार सिंह के किरदार में राजकुमार राव ने प्रभावशाली काम किया है। उनके किरदार में एक बेबसी है। वो बचपन से ही जातिगत आधार पर भेदभाव सहने का दर्द लेकर चलता आया है। लेकिन वो एक विश्वास में जीता है। पंकज कपूर और राजकुमार राव के बीच फिल्माए कुछ दृश्य बेहद शानदार लगे हैं। बलराम त्रिवेदी के किरदार में जातिगत अकड़ से लेकर बेचारगी तक का सफर दिखता है। वहीं, राजकुमार की गर्लफ्रैंड और डॉक्टर का किरदार निभा रहीं भूमि पेडनेकर ने भी अच्छा काम किया है। हालांकि उनके हिस्से में कुछ और मजबूत सीन्स दिये जा सकते थे। दीया मिर्जा अपने किरदार में जबरदस्त लगी हैं। वहीं, टीवी जर्नलिस्ट बनीं कृतिका कामरा और इंस्पेकटर यादव के किरदार में आशुतोष राणा भी प्रभावित करते हैं। खास तारीफ बनती है अदिति सुबेदी और सुशील पांडे की। दोनों भले ही कुछ देर के लिए ही स्क्रीन पर रहे,
अनुभव सिन्हा अपनी हार्ड हिटिंग फिल्मों के लिए जाने जाते हैं। मुल्क, आर्टिकल 15, थप्पड़ के बाद वो सोशल ड्रामा ‘भीड़’ लेकर आए हैं। कोई मिर्च- मसाला डालकर सनसनी फैलाने की कोशिश नहीं की है। फिल्म शुरूआत से लेकर अंत तक प्रवासी मजदूरों की स्थिति और मुसीबतों पर फोकस रही और यही फिल्म का सबसे पॉजिटिव पक्ष है। फिल्म के फर्स्ट हॉफ में किरदारों को स्थापित करने में थोड़ा समय लगाया, जो थोड़ा खिंचा हुआ लगता है। लेकिन इंटरवल से पहले कहानी गजब की तेजी पकड़ती है और अंत तक बांधे रखती है। खास बात है कि निर्देशक ने लॉकडाउन के सिर्फ एक दिन को दिखाया है, जिसे देखकर आप असहज हो जाएंगे। जबकि असल में मजदूरों को कितने लंबे समय तक मुसीबतों से जूझना पड़ा था। बहरहाल, फिल्म में इंसानियत की झलक भी दिखती है, जो कहीं ना कहीं दिल को राहत देती है।
फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर दिया है मंगेश धाकडे ने , जो कि बेहद दमदार है। संगीत हर दृश्य को और प्रभावी बनाती है। वहीं, अनुराग सैकिया द्वारा रचित फिल्म का गाना ‘हेराइल बा’ दिल को झंझोर कर रख देता है। सिनेमेटोग्राफर शौमिक मुखर्जी ने लॉकडाउन के परिदृश्यों को बेहतरीन तरीके से कैमरे में उतारा है। वहीं, अतानु मुखर्जी की एडिटिंग अच्छी है। उन्होंने महज 1 घंटे 52 मिनट में पूरी कहानी को समेट दिया है। वैसे सेंसर की ओर से कुछ चीजें काटी गई हैं, जिसका आभास होता है। बता दें, इस पूरी फिल्म को ब्लैक एंड व्हाइट में रखा है, जिसके जरीए निर्देशक यह बताना चाहते हैं कि कैसे लॉकडाउन के उस दौर में कुछ लोगों की जिंदगी से सारे रंग गायब हो गए थे।
लॉकडाउन का वक्त किसी के लिए भी आसान नहीं था। हर इंसान किसी ना किसी प्रकार की मुसीबतों से जूझ रहा था। कोई स्थास्थ्य संबंधी, कोई आर्थिक तो कोई पारिवारिक। लेकिन जब हममें से कुछ घर बैठे अपनी मुश्किलों को सुलझा रहे थे, हजारों- लाखों मजदूर सड़कों पर अपने गांव, अपने घर पहुंचने की आस में तपती धूप में चले जा रहे थे। उनके पास ना खाना था, ना रहने को कोई जगह, ना कोई गाड़ी, ना कोई मदद की उम्मीद। अनुभव सिन्हा की ‘भीड़’ इसी वर्ग की कहानी को दिखाती है।